संकलन :- जी पी बुधौलिया
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-: पिता दिवस पर पिता कोभेंट ये लाइनें:-
कई शाम सिसकियां ली थीं फोन पर मैंने, और आप अगले ही दिन मेरे हास्टल में होते थे।
" बालमन "अंदाजा ना था उसकी व्यस्तता, जिम्मेदारियों, परेशानियों और मोहब्बत का ।।
आज वही अंदाज और समझदारी, चट्टान सा मेरे सीने में आ बैठा है।
जकड़ लिया है,सब तरफ से दवा दिया है।
हटाना चाहती हूं तोड़ गिराना, इस बोझ को नहीं पसंद है मुझे ये।।
परन्तु निष्फल प्रयास जैसे स्वप्न में, छटपटाते हों हाथ पैर निष्परिणाम।
मैं आज भी रोकर ,चीखकर जोर से।
रातों को, शामों में, भीड़ में, अकेले में आवाज़ देना चाहती हूं आपको।
पूरे गले से, पूरी ताकत से, परन्तु गला कुछ रूंधा सा है।
उस बोझ ने आवाजों को, अन्दर ही घोंट दिया है।।
मार दिया है मुझमें, ही मुझे इसने।
फिर भी मैं जिन्दा हूं,एक तीव्र ज्योति चमक सी।।
मेरे ज़हन में अग्नि सी, और तुम्हारी नज़र में कुंदन सी ।।
" मुल्क मंजरी"
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डॉ अमृता पटेल
2/ C-9, वृन्दावन कालोनी,
लखनऊ