मक़बूल-इरफान

Updated on 09-01-2023 01:34 AM

संजय दुबे


            सुनहरे पर्दे पर किसी भी फिल्म का केंद्र बिंदु नायक होता है ये तयशुदा बात है लेकिन नायक के होते हुए भी आपके जेहन में कोई अन्य व्यक्ति नायक बन जाये तो ? ऐसी स्थिति में लोहा मानते है उस व्यक्ति का जो नायक के रहते अपनी उपस्थिति दर्ज करा लें जाता है। ऐसे व्यक्ति में साथ हम  तब और अपने बन जाते है जो हमारे ही आसपास के नेक्स्ट डोर  का व्यक्ति के समदर्श होने का अहसास दिला जाता है। ऐसा व्यक्ति अगर अपनत्व के दायरे में आकर अचानक ही दुनियां छोड़ दे तो लगता है गम का फसाना तेरा भी है मेरा भी है।
 7 जनवरी, भारतीय फ़िल्म इतिहास की एक "मकबूल" तारीख मान लिया जाना चाहिए। जन्म मृत्यु का निर्धारण हमारे बस की बात नही है लेकिन इसके बीच की अवधि में जीना, वो भी तब ये पता चल जाये कि पर्दा गिरता दिख रहा है तब औऱ भी मायने रखती है। इरफान खानको  रील लाइफ से रियल लाइफ में बहुत ही गम्भीर भूमिका निभाने की जिम्मेदारी मिली ,बहुत कम लोगो की जिंदगी में ऐसी भूमिका मिलती है। 
1992 में मेरे मित्र अजय ब्रह्मात्ज़ , को  चाणक्य धारावाहिक के पब्लिक रिलेशन का काम मिला ।मुझे  बुला लिया मुम्बई,  मैंने डॉ चंद्रकांत द्विवेदी से लेकर सभी मुख्य कलाकारों से इंटरव्यू लिया लेकिन सेनापति बने भद्रसाल से मुखातिब नहीं हो सका, कालांतर में यही  भद्रसाल की भूमिका निभाने वाला इरफान, नसीरुद्दीन शाह, ओमपुरी जैसे मंजे कलाकारों की कड़ी बना।
 फिल्म इंडस्ट्री में यदि आप घराने से नही है तो पैर जमाने के लिए  अतिरिक्त रूप से बड़ी मेहनत लगती है । इरफान खान ने भी 1992 से लेकर 2009 तक  बहुत मेहनत की। सलाम बॉम्बे, न्यूयॉर्क, जैसी फिल्में नाम नहीं दे सकी थी लेकिन मक़बूल औऱ स्लम डॉग मिलेनियर ने इरफान को एक जीवंत कलाकार के रूप में स्थापित कर दिया। आने वाले सालो में  लंच बॉक्स, पानसिंह तोमर, हिंदी मीडियम औऱ  पीकू में उनके आंखों से कही बात का तड़का देखने लायक था। अभिनय तब  बेमिसाल हो जाता है जब जबान के बजाय आपका चेहरा बोलने लगे। इरफान, ऐसे ही कलाकार थे।
 इस दुनियां में आने वालों को जाने का  समय बहुत कम लोगो को पता चलता है। बीमारियां बहुत सी है जिनमे जीने की उम्मीद बनी रहती है लेकिन कुछ बीमारियां ऐसी है जो बता देती है कि समय कम है।इरफान भी ऐसी ही बीमारी के शिकार हुए । विदेशों के नामवर चिकित्सा संस्थान ने उनको उतनी ही जिंदगी दी जिसमे वे अंग्रेजी मीडियम  फ़िल्म को पूरा कर पाए। वो आंखे जो बहुत बोलती थी उसके स्थाई बंद होने के साथ ही एक चेहरा अनंत में खो गया, याद रह गया एक चेहरा जो बहुत मक़बूल था


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